आज मुझे अपनी माँ से बात किये हुए कई दिन हो गये. बात करने का दिल ही नहीं करता. आज चलते -चलते बचपन की एक बात याद आयी. जब मैं छोटा था तो एक दिन जब हमारे मोहल्ले की बिजली गुल थी तो मैं कहीं खेलने निकल गया. शाम का वक़्त था, और मैं बहुत छोटा था. हम उस जगह पर नए आये भी थे. मेरी माँ ने मुझे बहुत खोजा होगा पर मैं नहीं मिला हूँगा. जब बिजली आई तो मैं अपने आप घर आया. यहाँ घर पर माँ बहुत परेशान और ग़ुस्से में थी. मेरे आते ही सबसे पहले ग़ुस्सा मेरे ऊपर उतरा. अब्बा कहीं से एक रबर की मोती रस्सी जैसी कोई चीज़ लाये . माँ के हाथ में आया और मेरी पिटाई शरू हो गयी. माँ को ग़ुस्सा था की मैं ऐसा कैसे कहीं जा सकता हुँ. उनको इस बात का डर था की कहीं मुझे कुछ हो गया होता तो वह क्या करती. जब थोड़ी देर के बाद उनका ग़ुस्सा काम हुआ तो उन्होंने अब यह देखना शरू किया की मुझे कहाँ-कहाँ रबर से मार खाने से निशान पड़े हैं. निशान तो पड़े थे और दर्द भी हो रहा था. लेकिन उस वक़्त घर में इसके इलाज के लिए क्या था पता नहीं. लेकिन माँ ने टेलकम पाउडर लगाये थे, शायद इस उम्मीद के साथ की इस से दर्द में आराम मिलेगा.
आज यह बात सोचता हूँ तो बहुत ही अजीब लजता है की सूजन के लिए टेलकम पाउडर!. मगर उस दिन मुझे वाक़ई बहुत आराम मिला था और मेरे दर्द में बड़ा फ़र्क़ आया था.
अभी जब मैं यह बातें लिख रहा हूँ तो मुझे माँ बहुत याद आ रही है.
"दुनिया में सब कुछ मिल जाता है, मगर हां माँ नहीं मिलती." (फिल्म 'मजबूर' के एक गाने के बोल)
आज यह बात सोचता हूँ तो बहुत ही अजीब लजता है की सूजन के लिए टेलकम पाउडर!. मगर उस दिन मुझे वाक़ई बहुत आराम मिला था और मेरे दर्द में बड़ा फ़र्क़ आया था.
अभी जब मैं यह बातें लिख रहा हूँ तो मुझे माँ बहुत याद आ रही है.
"दुनिया में सब कुछ मिल जाता है, मगर हां माँ नहीं मिलती." (फिल्म 'मजबूर' के एक गाने के बोल)